poetry by kavi chavi

Thursday, January 21, 2010

सरहद

............सरहद .....................

जहाँ कभी होती थी चर्चा

गाँव की नई बहू सुन्दर है /परिश्रमी है

या नए ढंग के खुले पन के साथ

थोड़ी फूहड़ ...

अब नहीं होती चर्चा

रहता है एक मौन /अपनी गंभीरता के साथ

वो चौपाले जो किया करती थीं

सही और गलत के बीच फर्क

अब भी होता है शोर /लम्बी बहस

अर्थ हीन अर्थो के साथ

खेत खलिहानों में
रहती है बैचेनी
अनियंत्रित असय्न्मित बादलों को देख कर
की हवाएं अब पहले सा स्पर्श नहीं करती
कोयल की कूक /जा बैठी है
कोए के गले में ...
अब हर चूल्हे पर
रखी है एक हांड़ी
पक रहें है जिसमे
चिन्ताओ से उभरे कुछ प्रश्न
और यह डर ...
की निगलता जा रहा है शहर
गाँव की सरहदों को ............//

विरासत

..........विरासत ......................

.मैंने अपनी वसीयत में
नहीं किया है जिक्र
अपने पुश्तेनी मकान का
जिसकी छत पर
कल ही डाले गए हैं /नए कबेलू
उन खेत खलिहानों का
जो कभी बंजर थे
...और जिन्हें
मेरे पसीने ने दिया था
मातृत्व वरदान ...
न ही उस जमा पूंजी का
जिसे जमा करते /मैं देख नहीं पाया
की उम्र ढल रही है
जर्जर होते शरीर के साथ
...मैनें अपनी वसीयत में लिखा है
की सौंप रहा हूँ तुम्हें
कुछ उत्सव /जिसमे तुम्हे शामिल होना है
बूढ़े -विशाल वाट वृक्ष के नीचे
कुछ मातम ...
जो तुमसे शब्द नहीं /संवेदना चाहेंगे
...और वह मूल्य ...
जिन्हें खारिज करना
अपनाने से भी कठिन हो
ओ मेरे वीर पुत्र
उसी छड /तुम समझ पाओगे
की तुम्हारें पिता के पास
और कुछ नहीं था
तुम्हें देने के लिए /विरासत में .......//

२१ /०१ २०१०