poetry by kavi chavi

Saturday, January 23, 2010

ग़ज़ल

दो घडी और जियें दिल में ये हरसत न रही
आज जब दुनियां में इन्सान की कीमत न रही
तंग दिल वालों की क्या बात करें हम यारों
इस जमानें के शरीफों में शराफत न रही
देख जिसको निगाहें बर्फ सी जम जाएँ कहीं
बाजारे-हुश्न में अब ऐसी नज़ाक़त न रही
आज भी देख कर नज़रें झुका चल देते हैं
कैसे कह दें की उन्हें हमसे मोहब्बत न रही
बंद कमरे में तोड़ते है रिश्ते रोज़ मगर
ज़ल्सों में कहते है अब कोई खिलाफत न रही
एक हम है की उनका नाम लिए जाते हैं
एक वो है की उन्हें हमसे मोहब्बत न रही .../
२२/०१/२०१०

औरत

............स्त्री ............

स्मृतियों की पोटली से
छांटती रही वह
सुख के क्षणों को /जो न मिले
घुटन,पीड़ा,अवसाद भरे क्षण ही
कौंधते रहे स्मृतियों में
चूल्हे के भीतर रखी
गीली लकड़ियों से
उठता धुंआ भर आया आँखों में
जुठें बर्तनों की कालिख
पसर आई मन पर
झाड़ू बुहारते
आँगन लीपते
हाथों ने जब उठाये
विश्राम के कुछ क्षण ...
अचानक आ पड़ी एक लात /पीठ पर
...और वर्तमान की तरह
असभ्य /कुछ शब्द
बटोर लिया
घुटन,पीड़ा ,अवसाद
भरे क्षणों को ...
बांध पोटली में
टांग खूटें पर
उठा ली पास ही रखी झाड़ू
...घर के भीतर का एक कोना
कुछ गन्दा सा दिखाई दिया था ...//