poetry by kavi chavi

Friday, April 11, 2014

" जशोदाबेन तो भली हैं, उनके पास संपत्ति भी क्या होगी।".... साहब जी.… आपने बड़ी ही सुन्दर बात कह दी  .... उनका नाम छुपाने या जताने पर  कोई व्यतिगत लाभ /हानि। ... सच है न साहब। … फिर ये बेफिजूल ली बात। .. मुलायम सिंह जैसा पहलवान (बुद्धिहीन )उठाये। … या तीसरी कक्षा के नकलची विद्यार्थी से भी कमतर राहुल जी। .... या फिर चारित्रिक विचलन का शिकार। ... पूर्व मुख्यमंत्री( दिल्ली) ..... दिग्गी साहब का जिक्र करना तो अपने आप को शर्मिंदा करना है। …लेकिन आपको क्या हो गया है। …… थोड़ा सा विचार  का समय दीजिये अपने आपको। … व्यस्तता के बीच अगर ये प्रतिक्रिया पढ़ पाएं तो विचार कीजियेगा। ..... ओम जी ..... न तो ये स्वच्छ सम्वाद है…न ही स्वस्थ सन्देश … न ही सकारात्मक उद्देश्य  ... साहब बहुत से हम जैसे लोग अपनी सुबह  ही आप या आपके पेशे से जुड़े लोगो के साथ शुरू करते है। .... अपने विचारों का सम्मान करते हुए अपने तात्कालिक विचारों पर गौर करे। .... आशा है आप आत्मपरीक्षण करने का क्षणिक अवकाश जरूर निकाल पायेंगे .... आपके मानसिक स्वास्थ्य के लिए शुभकामनाओं सहित। … सादर 

Thursday, February 27, 2014

वो मेरा दोस्त है या दुश्मन है
साथ है मेरे ,यही क्या कम है

क्या कहें किससे कहें  कैसे कहें 
एक दिल और हज़ारों गम हैं

सर्द रिश्तों में गर्मियों की झूठी तस्वीरे
अजीब दौर का कितना अजीब मौसम है

हर तरफ धुंध है गफ़लत है ,तंग गलियां है
ये नई  शक्ल 

Saturday, June 8, 2013

holi

आज होली है
"मन मैं कुछ पीड़ा है ....और दिमाग में गुस्सा .....बहुत गुस्सा .....

"मै जानता  हूँ कि  एक दिन निज़ाम बदलेगा
ये ज़मीं बदलेगी वो आसमान बदलेगा
 हवा बदलेगी और बदलेंगे मौसमी तेवर
 वक़्त की बज़्म में हर खास-ओ-आम बदलेगा "

........सम्मानित मित्रों इशारा समझिये ...."उन्वान "के पश्चात् विस्तार से मिलता हूँ।।।।।।।।।।।।सविनय।।।।।।

Sunday, January 20, 2013


ओ मेरी नव तरुनाई के पहले सपने, तूने मेरे जीवन को संचार दिया है ...
वाह सुन्दर बहुत सुन्दर प्रारंभ ....आदरणीय सलिल जी सुबह मोबाईल पर आपके इस गीत की प्रारंभिक पंक्तियों को ही पढ़ पाया था ....प्राम्भिक पंक्ति में ही ..सुन्दरतम प्रवाह के साथ विस्तार पाने की असीम संभावनाएं समझ आई थी ......
अभी कुछ क्षण पहले ही इस रचना को पूरा पढ़ पाया .......सुन्दर बहुत सुन्दर गीत बन पड़ा है .......है सलिल जी .....जितना सुन्दर प्रारंभ है .....उतना ही सुन्दर अंत ....
" मैं आभारी चिर कृतज्ञ तेरा हूँ सपने, तूने मम गंतव्य को इक आकार दिया है।।
ओ मेरी नव तरुनाई के पहले सपने,तूने मेरे जीवन को संचार दिया है .....सुन्दर बहुत सुन्दर .......बस प्रथम पंक्ति के साथ ही अपेक्षायें कुछ अधिक हो उठी अथवा .....गीत में कुछ प्रवाह बाधा ... कुछ जगह पर शब्द चयन में समझौता .....ये छोटी छोटी वजहें रहीं ..जिनसे एक साँस में पुरे गीत को नहीं पढ़ सका ....कुछ जगह विराम दे कर शब्द -भाव को समझने काप्रयास करना पड़ा .....निःसंदेह सुन्दर पररम्भ एवं अंत के बीच में कुछ तो बाधा है ...जिसे साधने पर यह सुन्दर गीत ...और अधिक सुन्दर हो उठेगा ...सादर .....


"निःसंदेह ....वर्तमान सामजिक परिदृश्य के सन्दर्भ में बड़ा ही सार्थक विषय चुन गया।।।।।सम्म्मानित मंच द्वारा .....
"पाश्चात्य का भारत पर प्रभाव ".........................
जब पहली बार पढ़ा तो लगा शीर्षक कुछ अधुरा है . पाश्चात्य क्या .....संस्कृति ,सभ्यता,विज्ञान ,भाषा या जीवन-शैली ...?..लेकिन जब शीर्षक को बार-बार पढ़ा तो समझ पाया ....इसमें तो विचार-विमर्श की और अधिक सम्भावना है ......अतः बिना किसी भूमिका के सीधे विचार रखता हूँ ........

"पाश्चात्य ने ....विशेषकर विकसित /शक्तिशाली पाश्चात्य ने .....निश्चित ही अपने शक्ति /सामर्थ्य से न सिर्फ स्ययम के समाज को वरन ....सम्पूर्ण विश्व को प्रभावित किया ! यंहा शक्ति से तात्पर्य ....राजनैतिक दूरदर्शिता /सामरिक दूरदर्शिता से है तो ....सामर्थ्य से तात्पर्य ...आर्थिक समीकरण के हिसाब से देशों ,सीमाओं की आर्थिक /सेन्य मोर्चाबंदी से है ....शक्तिशाली पाश्चात्य ने यह बड़ी ही कुटिल सोच और चतुर विश्लेषण के साथ किया ! ....विश्व में हथियारों की होड़ .....सीमाओं के अनिर्णीत विवाद ....अमानवीय रक्तपात ...मै इसके लिए शक्ति /सामर्थ्य /संपन्न पाश्चात्य को दोषी मानता हूँ ....दोषी ही नहीं ,सम्पूर्ण मानव अस्तित्व के लिए विन्ध्वंस रचने वाला राक्षस ......लेकिन ...लेकिन ...मई समझ पा रहा हूँ की "पाश्चात्य का  भारत पर प्रभाव "....का आशय शुद्ध रूप से वैचारिक /सांस्कृतिक /सामजिक /वैचारिक प्रभाव से ही है .....इस विषय पर बिन्दुवार कहना चाहूँगा .......
1) भाषा  ....यंहा भाषा से तात्पर्य जो हम बोलते हैं, वह नहीं  ! जो हम सुनते हैं वह भी नहीं !......यहाँ भाषा से तात्पर्य है जिसे हम अपनी जेवण शैली में सगर्व स्वीकार कर लेते हैं ..!....मोम -डेड ....यही पहला भाषायी प्रत्यर्पण रहा  होगा संभवतः ....पाश्चात्य और हमारे बीच ...(फिल्मकारों / सीमित क्षमतावान साहित्यकारों ने बड़ी ही विद्रुपदा से कई बार चित्रित /चिन्हित किया है )....लेकिन मेरा मानना है कि मोम -डेड भी ...अम्मा -बाऊ जी जितना ही पवित्र है ...संवेदनात्मक है .....दोष बस यह रह गया की हम अम्मा-बाऊ जी को .. वैचारिक पिछड़ापन मान बैठे ...मोम -डेड को  विचारधारा .....यह पाश्चात्य का थोपा हुआ भाषायी अपराध नहीं था .....यह दोष था ...किसी अन्य  भाषा को व्यतिगत पूर्वाग्रह से ग्रहण करने का ...निसंदेह यह दोष हमारा था ........!

2)संस्कृति ....!..विश्व की प्राचीनतम संस्कृति की प्रमाणिकता के साथ ...विशाल सांस्कृतिक धरोहर लिए हम विश्व पटल पर रहे !...धार्मिक मिमांसाये /आध्यात्मिक यात्रायें /लोकगीतों से ले कर विशद साहित्यिक सन्दर्भों से हमने सम्पूर्ण विश्व को अपनी ओर आकर्षित किया सबने हमसे हमारा श्रेष्ठ ग्रहण किया ...हमारी आध्यात्मिक चेतना ने पाश्चात्य के अवचेतन को नए जीवन मूल्य दिए ...नैतिक बोध दिया ...किन्तु हमने स्ययम क्या लिया .....हम सतही  आडम्बरों के साथ आगे बढ़ते रहे ....विवेकानंद /गाँधी के महान विचारों को सरकारी पुस्कालयों में दीमको के हवाले कर ...उनकी तस्वीरों/मूर्तियों  को दफ्तरों /चौराहों पर टांगते रहे /खड़ा करते रहे ....न हमने स्ययम के श्रेष्ठतम से ही कुछ श्रेष्ठ ग्रहण  किया ....न ही  पाश्चात्य के सहज /स्वाभाविक सामाजिक ,सांस्कृतिक आग्रह को उसके पूर्ण स्वरुप से समझने  का प्रयास किया !हम अपनी अधकचरी मानसिकता के और दोगलेपन के साथ पाश्चात्य का बस कचरा भर ही समेट  पाये ....चाहे वो यांत्रिक कचरा हो या फिर सांस्कृतिक /वैचारिक  ....इसमें दोष  पाश्चात्य के देने का नहीं ....हमारे ग्रहण करने का है ...हमारी सोच का है ........

3)पहनावा ..."रूह से जिस्म तक परदे में रहूँ ,पाक रहूँ
                     फिर भी नापाक नज़र ,तार-तार कर देगी".....पहनावा दरअसल है क्या ..?..सभ्य शरीर  की अनिवार्यता या फिर कुंठित विचारों के विरुद्ध देह की किलाबंदी ..?..निःसंदेह पहनावा इन दोनों से भिन्न ...शरीर की सुविधा मात्र है ....! पाश्चात्य समाज ने अपनी सुविधानुसार इसे सहज रूप से ग्रहण किया ..बनिस्पत उन समाजों के जो तथाकथित नैतिक सभ्यता का पाखंड ओढ़े दैहिक लौलुपता को अपने विचारों से परे नहीं रख सके ...(आँखें जब एक्स रे मशीन की तरह जिस्म की पड़ताल करें तब पहनावा कुछ भी हो ...अनैतिकता क्रूर हो उठेगी )....मसलन टेनिस खेलते हमने गेबरीला सबातीन को देखा ...मारिया शारापोव को देख रहे हैं ....स्लो रिप्ले मोशन में हम उनके शाट्स की गहराइयों को समझते हैं /उनकी अद्भुत कला को देखते हैं ...न की फूलती -पिचकती उनकी मांसल मांस-पेशियों को ....वहीँ दूसरी तरफ साडी या सलवार-समीज में कड़ी महिला के शारीर का भौगोलिक विश्लेषण कर ...विकृत विचारों के आधीन हो उठते हैं !...तो ठीक हैं न दोष पहनावे का नहीं .....दोष दृष्टिकोण /वाचारिक कुंठा का है ....वही समाज इस सत्य को सहज रूप से ग्रहण कर सका जो वैचारिक /नैतिक रूप से भी स्ययम उन्नत कर पाया .....पाश्चात्य ने हमें नए विकल्प भर दिए ......इसके अतिरिक्त सारे गुण -दोष हमारे स्ययम के हैं .....!

.........................आदरणीय मित्रों एनी बहुत से बिन्दुओं पर भी हम विचार कर सकते हैं ...किन्तु मोटा-मोटा समझे तो भी समझ आता है की पश्चिम ने पूर्व के  हर श्रेष्ठ को ग्रहण किया ....वह चाहे सांस्कृतिक /वैचारिक विरासत हो या भौगोलिक /प्राकृतिक  विरासत ....! ..वहीँ पूर्व ने पश्चिमी चकाचौंध को आश्चर्य पूर्ण दृष्टि से देखा ..अपनी विपन्नता के बीच उनकी संपन्नता पर मुग्ध हुए और इसी यांत्रिक मुग्धता में पाश्चात्य समाज के नैतिक / मानवीय /सामाजिक /राष्ट्रिय नागरिकीय जागरूकता ...जीवन शैली को अपनाने की जगह उनके यांत्रिक कचरे /दिनचर्या /उनके पहनावे /उनकी भाषा को ही अपनाने का प्रयास किया ...वह भी अधकचरी मानसिकता के नवीन प्रलोभनों के साथ ....

.......इस तरह मेरा मानना है ....हम परस्पर एक दुसरे से प्रभावित होंगे ...परस्पर आदान-प्रदान होगा हमारे बीच .......बस जो महत्त्व पूर्ण है वह यह है की ...."प्रभावित करने वाले कारक  क्या हैं ....और ग्रहण करने वाले तत्व कौन ".......
                    
"सबसे पहले सम्मानित मंच को बधाई इस सार्थक /गंभीर विषय के चयन के लिए .....बधाई ....आदरणीय विनोद जी को जिन्होंने अंतिम समय पर मिली सुचना के पश्चात भी थोड़े ही समय में विषय से सम्बंधित सुन्दर आलेख प्रस्तुत कर ...विषय पर विचार-विमर्श हेतु सहभागिता को सरल कर दिया .....सुन्दर बहुत सुन्दर ......