poetry by kavi chavi

Thursday, January 10, 2013

"निःसंदेह आपकी पीड़ा ...आपका आक्रोश पूरी तरह जायज है ...इस तरह के राष्ट्र विरोधी ,समाज विरोधी,मानवता विरोधी ....राष्ट्र विरोधी तत्वों के विरुद्ध ...किसी एक व्यक्ति ,किसी समुदाय का ही ... नहीं सम्पूर्ण भारतीय नागरिकों का कर्तव्य है उठ खड़े हों ...इस  की शैतानी ताकतों को पनपने से पहले उखाड़ने की जरुरत है ..इनकी जड़ों में मट्ठा डालना ही होगा ....सबको मिल कर एक  स्वर में कहना होगा ...."तुम्हारे जैसे जाहिल ,मानवता के शत्रुओं ,राष्ट्र विरोधियों के लिए कोई जगह नहीं है हमारी धरती पर ....हमारे दिलो में ......." और जो सियासी हुक्मरान इस तरह के लोगो के पीछे खड़े होते हैं ...उन्हें भी पहचान कर ....उनके खिलाफ भी जनमत को जागृत करने की आवश्यकता है ......तभी देश स्वच्छ रहेगा ...समाज सुरक्षित ......"
'"वह मित्र पांचो वक़्त के नमाज़ी थे ...मैं  भी नियमित रूप से रामायण पढता था ....
"आप धर्म को किस तरह लेते हैं ....मैंने कहा "नदी" के जल की तरह लेता हूँ
 कभी "नदी" के भीतर जा कर सत्य को खोजा  है ..? मैंने कहा नहीं ...मैं उसकी गति ...उसके स्पर्श ...उसके स्वाभाविक कम्पन में "सत्य" को पाता  हूँ ...
उन्होंने फिर पूछा ...सत्य क्या है ....? मैंने कहा प्रेम ....मात्र प्रेम ...
प्रेम के साथ ही घृणा भी तो है दुनिया में ....?उन्होंने शंका ज़ाहिर की ....प्रेम स्वनिर्मित है ...इश्वर की तरह ...सृष्टि की तरह

आदरणीय निशा जी ...निसंदेह यथार्थ जब इस रूप में हमारे सामने हो तो कवी मन पीड़ा को गाता है ...पाठक अपनी संवेदनाओं में उस पीड़ा को पाता  हैं ....रचना और प्रतिक्रिया दोनों ही भावुक हो उठती हैं ......जिस प्रकार यह रचना अपूर्ण  रही ....यह कटु यथार्थ भी अब विश्राम ले ....हर मनुष्य संपन्न ,सामर्थ्यशील ,संभावनाओं से भरा हो तो जीवन कितना सुन्दर हो जायेगा ...है ना ....आपकी गंभीर उपस्थिति सदैव ही रचना /रचनाकार का मान बढ़ा  जाती है ......ह्रदय से धन्यवाद ..........सादर ...
"आदरणीय सलिल जी .....आपने जिस गंभीरता से इन पंक्तियों को पढ़ा ....भावों में व्यक्त पीड़ा को अनुभव किया ....ह्रदय से आपको धन्यवाद कहता हूँ ...साथ ही सब से रोचक बात रही ....आपका इन पंक्तियों में एक खंड-काव्य की सम्भावना तलाशना .....सच कहूँ तो 1997-198 में जब इसे लिखना प्राम्भ किया था तब शायद 5-6 पृष्ठों तक शब्द और भाव साथ रहे थे ...जिन कागजो पर लिखा था ..गुम हो गए .. ...अब कितना भी चाहूँ इस रचना को वह स्वरुप नहीं दे सकता ......जिस तरह मैंने अपने जीवन को अभिशापित किया उस तरह के जीवन में ....पुनर्विचार ...अथवा पुनः प्रयास जैसी सम्भावना ही ध्वस्त हो गई ...निसंदेह
माँ की ममता, जलहीन धरा ,जो खुद ही भूखी-प्यासी थी

माँ के अधरों के भांति ही ,वक्षों में गहन उदासी थी .......इसके आगे की दो पंक्तियाँ और याद आई थी कल शाम ....
" माँ के वक्षो से दूध नहीं ,केवल नैनों से अश्रु बहे
  उस माँ के पीड़ा  कौन सहे उस माँ की पीड़ा  कौन कहे ...........वह अनुभूति ....वह यथार्थ पीड़ा पुनः मन में भर .....भाव को शब्द रूप दे पाना अब निश्चित ही संभव नहीं .....प्रयास भी करूँगा ....तो मात्र बनावटी  भाव के साथ  ओढ़े हुए निर्जीव शब्द ही मुखर होंगे ......किन्तु ह्रदय की पूर्ण विनम्रता के साथ आपको नमन करता हूँ .....इस रचना को लिखते समय जो मंतव्य था ......आपने उसे  सम्भावना रूप में  उतनी ही गहराई से पकड़ा ...भावो को उतनी ही पीड़ा के साथ अनुभव किया ...इन पंक्तियों का पुनः स्मरण सार्थक हो गया ....सादर ....