poetry by kavi chavi

Thursday, January 10, 2013

'"वह मित्र पांचो वक़्त के नमाज़ी थे ...मैं  भी नियमित रूप से रामायण पढता था ....
"आप धर्म को किस तरह लेते हैं ....मैंने कहा "नदी" के जल की तरह लेता हूँ
 कभी "नदी" के भीतर जा कर सत्य को खोजा  है ..? मैंने कहा नहीं ...मैं उसकी गति ...उसके स्पर्श ...उसके स्वाभाविक कम्पन में "सत्य" को पाता  हूँ ...
उन्होंने फिर पूछा ...सत्य क्या है ....? मैंने कहा प्रेम ....मात्र प्रेम ...
प्रेम के साथ ही घृणा भी तो है दुनिया में ....?उन्होंने शंका ज़ाहिर की ....प्रेम स्वनिर्मित है ...इश्वर की तरह ...सृष्टि की तरह

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