poetry by kavi chavi

Saturday, June 8, 2013

holi

आज होली है
"मन मैं कुछ पीड़ा है ....और दिमाग में गुस्सा .....बहुत गुस्सा .....

"मै जानता  हूँ कि  एक दिन निज़ाम बदलेगा
ये ज़मीं बदलेगी वो आसमान बदलेगा
 हवा बदलेगी और बदलेंगे मौसमी तेवर
 वक़्त की बज़्म में हर खास-ओ-आम बदलेगा "

........सम्मानित मित्रों इशारा समझिये ...."उन्वान "के पश्चात् विस्तार से मिलता हूँ।।।।।।।।।।।।सविनय।।।।।।

Sunday, January 20, 2013


ओ मेरी नव तरुनाई के पहले सपने, तूने मेरे जीवन को संचार दिया है ...
वाह सुन्दर बहुत सुन्दर प्रारंभ ....आदरणीय सलिल जी सुबह मोबाईल पर आपके इस गीत की प्रारंभिक पंक्तियों को ही पढ़ पाया था ....प्राम्भिक पंक्ति में ही ..सुन्दरतम प्रवाह के साथ विस्तार पाने की असीम संभावनाएं समझ आई थी ......
अभी कुछ क्षण पहले ही इस रचना को पूरा पढ़ पाया .......सुन्दर बहुत सुन्दर गीत बन पड़ा है .......है सलिल जी .....जितना सुन्दर प्रारंभ है .....उतना ही सुन्दर अंत ....
" मैं आभारी चिर कृतज्ञ तेरा हूँ सपने, तूने मम गंतव्य को इक आकार दिया है।।
ओ मेरी नव तरुनाई के पहले सपने,तूने मेरे जीवन को संचार दिया है .....सुन्दर बहुत सुन्दर .......बस प्रथम पंक्ति के साथ ही अपेक्षायें कुछ अधिक हो उठी अथवा .....गीत में कुछ प्रवाह बाधा ... कुछ जगह पर शब्द चयन में समझौता .....ये छोटी छोटी वजहें रहीं ..जिनसे एक साँस में पुरे गीत को नहीं पढ़ सका ....कुछ जगह विराम दे कर शब्द -भाव को समझने काप्रयास करना पड़ा .....निःसंदेह सुन्दर पररम्भ एवं अंत के बीच में कुछ तो बाधा है ...जिसे साधने पर यह सुन्दर गीत ...और अधिक सुन्दर हो उठेगा ...सादर .....


"निःसंदेह ....वर्तमान सामजिक परिदृश्य के सन्दर्भ में बड़ा ही सार्थक विषय चुन गया।।।।।सम्म्मानित मंच द्वारा .....
"पाश्चात्य का भारत पर प्रभाव ".........................
जब पहली बार पढ़ा तो लगा शीर्षक कुछ अधुरा है . पाश्चात्य क्या .....संस्कृति ,सभ्यता,विज्ञान ,भाषा या जीवन-शैली ...?..लेकिन जब शीर्षक को बार-बार पढ़ा तो समझ पाया ....इसमें तो विचार-विमर्श की और अधिक सम्भावना है ......अतः बिना किसी भूमिका के सीधे विचार रखता हूँ ........

"पाश्चात्य ने ....विशेषकर विकसित /शक्तिशाली पाश्चात्य ने .....निश्चित ही अपने शक्ति /सामर्थ्य से न सिर्फ स्ययम के समाज को वरन ....सम्पूर्ण विश्व को प्रभावित किया ! यंहा शक्ति से तात्पर्य ....राजनैतिक दूरदर्शिता /सामरिक दूरदर्शिता से है तो ....सामर्थ्य से तात्पर्य ...आर्थिक समीकरण के हिसाब से देशों ,सीमाओं की आर्थिक /सेन्य मोर्चाबंदी से है ....शक्तिशाली पाश्चात्य ने यह बड़ी ही कुटिल सोच और चतुर विश्लेषण के साथ किया ! ....विश्व में हथियारों की होड़ .....सीमाओं के अनिर्णीत विवाद ....अमानवीय रक्तपात ...मै इसके लिए शक्ति /सामर्थ्य /संपन्न पाश्चात्य को दोषी मानता हूँ ....दोषी ही नहीं ,सम्पूर्ण मानव अस्तित्व के लिए विन्ध्वंस रचने वाला राक्षस ......लेकिन ...लेकिन ...मई समझ पा रहा हूँ की "पाश्चात्य का  भारत पर प्रभाव "....का आशय शुद्ध रूप से वैचारिक /सांस्कृतिक /सामजिक /वैचारिक प्रभाव से ही है .....इस विषय पर बिन्दुवार कहना चाहूँगा .......
1) भाषा  ....यंहा भाषा से तात्पर्य जो हम बोलते हैं, वह नहीं  ! जो हम सुनते हैं वह भी नहीं !......यहाँ भाषा से तात्पर्य है जिसे हम अपनी जेवण शैली में सगर्व स्वीकार कर लेते हैं ..!....मोम -डेड ....यही पहला भाषायी प्रत्यर्पण रहा  होगा संभवतः ....पाश्चात्य और हमारे बीच ...(फिल्मकारों / सीमित क्षमतावान साहित्यकारों ने बड़ी ही विद्रुपदा से कई बार चित्रित /चिन्हित किया है )....लेकिन मेरा मानना है कि मोम -डेड भी ...अम्मा -बाऊ जी जितना ही पवित्र है ...संवेदनात्मक है .....दोष बस यह रह गया की हम अम्मा-बाऊ जी को .. वैचारिक पिछड़ापन मान बैठे ...मोम -डेड को  विचारधारा .....यह पाश्चात्य का थोपा हुआ भाषायी अपराध नहीं था .....यह दोष था ...किसी अन्य  भाषा को व्यतिगत पूर्वाग्रह से ग्रहण करने का ...निसंदेह यह दोष हमारा था ........!

2)संस्कृति ....!..विश्व की प्राचीनतम संस्कृति की प्रमाणिकता के साथ ...विशाल सांस्कृतिक धरोहर लिए हम विश्व पटल पर रहे !...धार्मिक मिमांसाये /आध्यात्मिक यात्रायें /लोकगीतों से ले कर विशद साहित्यिक सन्दर्भों से हमने सम्पूर्ण विश्व को अपनी ओर आकर्षित किया सबने हमसे हमारा श्रेष्ठ ग्रहण किया ...हमारी आध्यात्मिक चेतना ने पाश्चात्य के अवचेतन को नए जीवन मूल्य दिए ...नैतिक बोध दिया ...किन्तु हमने स्ययम क्या लिया .....हम सतही  आडम्बरों के साथ आगे बढ़ते रहे ....विवेकानंद /गाँधी के महान विचारों को सरकारी पुस्कालयों में दीमको के हवाले कर ...उनकी तस्वीरों/मूर्तियों  को दफ्तरों /चौराहों पर टांगते रहे /खड़ा करते रहे ....न हमने स्ययम के श्रेष्ठतम से ही कुछ श्रेष्ठ ग्रहण  किया ....न ही  पाश्चात्य के सहज /स्वाभाविक सामाजिक ,सांस्कृतिक आग्रह को उसके पूर्ण स्वरुप से समझने  का प्रयास किया !हम अपनी अधकचरी मानसिकता के और दोगलेपन के साथ पाश्चात्य का बस कचरा भर ही समेट  पाये ....चाहे वो यांत्रिक कचरा हो या फिर सांस्कृतिक /वैचारिक  ....इसमें दोष  पाश्चात्य के देने का नहीं ....हमारे ग्रहण करने का है ...हमारी सोच का है ........

3)पहनावा ..."रूह से जिस्म तक परदे में रहूँ ,पाक रहूँ
                     फिर भी नापाक नज़र ,तार-तार कर देगी".....पहनावा दरअसल है क्या ..?..सभ्य शरीर  की अनिवार्यता या फिर कुंठित विचारों के विरुद्ध देह की किलाबंदी ..?..निःसंदेह पहनावा इन दोनों से भिन्न ...शरीर की सुविधा मात्र है ....! पाश्चात्य समाज ने अपनी सुविधानुसार इसे सहज रूप से ग्रहण किया ..बनिस्पत उन समाजों के जो तथाकथित नैतिक सभ्यता का पाखंड ओढ़े दैहिक लौलुपता को अपने विचारों से परे नहीं रख सके ...(आँखें जब एक्स रे मशीन की तरह जिस्म की पड़ताल करें तब पहनावा कुछ भी हो ...अनैतिकता क्रूर हो उठेगी )....मसलन टेनिस खेलते हमने गेबरीला सबातीन को देखा ...मारिया शारापोव को देख रहे हैं ....स्लो रिप्ले मोशन में हम उनके शाट्स की गहराइयों को समझते हैं /उनकी अद्भुत कला को देखते हैं ...न की फूलती -पिचकती उनकी मांसल मांस-पेशियों को ....वहीँ दूसरी तरफ साडी या सलवार-समीज में कड़ी महिला के शारीर का भौगोलिक विश्लेषण कर ...विकृत विचारों के आधीन हो उठते हैं !...तो ठीक हैं न दोष पहनावे का नहीं .....दोष दृष्टिकोण /वाचारिक कुंठा का है ....वही समाज इस सत्य को सहज रूप से ग्रहण कर सका जो वैचारिक /नैतिक रूप से भी स्ययम उन्नत कर पाया .....पाश्चात्य ने हमें नए विकल्प भर दिए ......इसके अतिरिक्त सारे गुण -दोष हमारे स्ययम के हैं .....!

.........................आदरणीय मित्रों एनी बहुत से बिन्दुओं पर भी हम विचार कर सकते हैं ...किन्तु मोटा-मोटा समझे तो भी समझ आता है की पश्चिम ने पूर्व के  हर श्रेष्ठ को ग्रहण किया ....वह चाहे सांस्कृतिक /वैचारिक विरासत हो या भौगोलिक /प्राकृतिक  विरासत ....! ..वहीँ पूर्व ने पश्चिमी चकाचौंध को आश्चर्य पूर्ण दृष्टि से देखा ..अपनी विपन्नता के बीच उनकी संपन्नता पर मुग्ध हुए और इसी यांत्रिक मुग्धता में पाश्चात्य समाज के नैतिक / मानवीय /सामाजिक /राष्ट्रिय नागरिकीय जागरूकता ...जीवन शैली को अपनाने की जगह उनके यांत्रिक कचरे /दिनचर्या /उनके पहनावे /उनकी भाषा को ही अपनाने का प्रयास किया ...वह भी अधकचरी मानसिकता के नवीन प्रलोभनों के साथ ....

.......इस तरह मेरा मानना है ....हम परस्पर एक दुसरे से प्रभावित होंगे ...परस्पर आदान-प्रदान होगा हमारे बीच .......बस जो महत्त्व पूर्ण है वह यह है की ...."प्रभावित करने वाले कारक  क्या हैं ....और ग्रहण करने वाले तत्व कौन ".......
                    
"सबसे पहले सम्मानित मंच को बधाई इस सार्थक /गंभीर विषय के चयन के लिए .....बधाई ....आदरणीय विनोद जी को जिन्होंने अंतिम समय पर मिली सुचना के पश्चात भी थोड़े ही समय में विषय से सम्बंधित सुन्दर आलेख प्रस्तुत कर ...विषय पर विचार-विमर्श हेतु सहभागिता को सरल कर दिया .....सुन्दर बहुत सुन्दर ......

Saturday, January 19, 2013

"आदरणीय सिया जी ...आपके शीघ्र स्वास्थ्य लाभ की कामना के साथ ही .....जन्मदिवस की हार्दिक-हार्दिक शुभकामनायें ...आप स्वस्थ रहें ...प्रसन्न रहें .....वो झील ,वो झरने ,पहाड़ी .वो खामोश तन्हाईयाँ  .....वो कुछ कह कर ,बहुत कुछ कह जाने वाली गहन संवेदनात्मक अभिव्यक्तियाँ ....आपकी कलम के चल पड़ने की प्रतीक्षा में हैं ....हम सब आपको पूर्व की भांति गुनगुनाते -मुस्कुराते देखना चाहते हैं .......ह्रदय की पूर्ण  श्रद्धा से पुनः बहुत-बहुत बधाई ....शुभकामनायें .....सादर ....."
आदरणीय शुक्ल जी .....ये आपके मौलिक चिंतन /शैली विशेष पर पूर्ण अधिकार का ही कमाल है .....मैं बिना आपकी तस्वीर देखे /नाम पढ़े इस अनूठी रचना को पढ़ गया .....असीमित आनंद के साथ ही मात्र चार पंक्तियाँ पढ़ते ही दिमाग में आपका चेहरा और नाम कौंध उठा ...." अरे, यह तो हमारे शुक्ल जी का ही सृजन हो सकता है ....मन बोल उठा "........काव्य की इस विद्या में आपका जो नियंत्रण है ....वह माँ वीणा-वादिनी की ओर से आपको निमंत्रण है ...आप एक बहुत लम्बी  यात्रा के पथिक है ...थके नहीं ....रुके नहीं ....ह्रदय से शुभकामनाएं ....सादर .....

Friday, January 18, 2013

........................( 1 )...........................................

"अभी -अभी .................................................
 अभी-अभी तो उसके गालों पर लाली भर आई थी
 अभी-अभी तो उसके माथे की बिंदिया मुस्काई थी

 अभी-अभी तो उसके सपनो ने सम्बोधन पाए थे
 अभी-अभी उसके श्रृंगारों ने नवगीत सुनाये थे

 अभी-अभी उसके आँचल में चाँद-सितारे उभरे थे
 अभी-अभी उसकी आँखों में कितने बादल उतरे थे

 अभी-अभी उसके संकोचो ने अपने पर खोले थे
 अभी-अभी तो उसके कंगन सात सुरों में बोले थे

 अभी-अभी उसकी पायल को पनघट ने पहचाना था
 अभी-अभी उतरी मेंहदी को फुलवारी ने जाना था

 अभी-अभी उसके मन ने था रास रचा वृन्दावन का
 अभी-अभी उसकी आहट पर नाच उठा  घर आँगन था

 अभी-अभी बस अभी अभी तो उसने जीवन जाना था
 अभी-अभी बस अभी-अभी तो प्रियतम का सुख माना था  ........................

 ............................( 2 ).......................................


अभी-अभी ......................
 अभी-अभी थी चिट्ठी आई ..............................

"छत की टूटी खपरेलों का
 खेंतों की अनगढ़ मेड़ों का

 अम्मा-बाबू की छाती का 
 बहना की पावन पाती का

अपनों के स्नेहिल क्षण का
गाँव की मिटटी के कण का

यार-दोस्तों की बातों का
तुम बिन काटे दिन रातों  का

मूल-ब्याज सब लौटाऊँगा
मैं इस सावन को आऊंगा  .............................


...............................( 3 )...............................

 अभी  -अभी .................

 अभी-अभी फिर  सरहद कांपी ,बारूदों का शोर हुआ
  अभी-अभी  संदेशा  आया ,युद्ध घोर घन-घोर हुआ

 अभी -अभी संदेशा आया  वो अब लौट न पायेगा
 लेकिन उसकी वीरगती  को युग-युग गाता जाएगा

 अभी-अभी संदेशा आया .............

..........................( 4 )................................

अभी-अभी ...............................

अभी-अभी उसके सपने, सरहद की आंधी तोड़ गई
अभी-अभी उसके श्रृंगारों  को नियति झकझोर गई

अभी-अभी उसकी आँचल से  चाँद-सितारे बिखर गए
अभी-अभी उसकी आँखों में दुःख के बादल उतर गए  

अभी-अभी उसकी पायल के एक-एक घुंघरू टूट गए
अभी-अभी उतरी मेंहदी को ,काल भरे क्षण लूट गए

अभी अभी अम्मा -बाबू की छाती पर वज्राघात हुआ

















Wednesday, January 16, 2013

आदरणीय संध्या जी .......सादर नमस्कार ....
"हे परम पिता !!
फेंक कर अपने
उत्तरदायित्व
गठरी में लपेट कर ,
गौतम बुद्ध सा
निकल पड़ा था एक दिन
अपने पलायन की शर्म को
तेरी खोज की गरिमा
से ढांप कर | ..."..................आजके लगभग 15 वर्ष पूर्व "यशोधरा' पढने का  अवसर मिला था  मिला था  ......" हाय मुझसे कह कर जाते "....के उस करुण  करुण विलाप के बीच  .....गौतम बुद्ध की वह "जिज्ञासा " ..... मन को भीतर तक व्यथित करता रहा था  .... अपने उत्तरदायित्व और ईश्वरीय खोज के बीच ....मन में बहुत से प्रश्न उठे ...और निरुत्तरित शांत हो गए .....आज वही सन्दर्भ ....आपकी इस मर्मस्पर्शी /यथार्थ बोध लिये  सुन्दर रचना में  ....पूर्णतः स्पष्ट और तटस्थ वैचारिक  बोध ...शंकाओं का समाधान प्रस्तुत  करते हुए .....नमन करता हूँ इस गहन वैचारिक प्रस्तुति को ....स्मृति कोष में संचित करने योग्य इस सुन्दर  रचना को ...................................
 कौन जान पायेगा भला ??
कि मुक्ति की ये राह
ख़त्म होती है .....
असंख्य बेड़ियों पर ..!! ........अनायास ही ....एक महान सिनेमा का अमर पात्र (राजू गाइड ) याद हो आया .... बेड़ियों के डर से भाग ...मानवीय कारागार से स्वतंत्रता की चाह  ....भौतिक मुक्ति के लिए पहचान छुपा ....छुपता-छुपाता .....मानवीय सबलताओं /दुर्बलताओं से भरा सामान्य सा चरित्र .....जब पीड़ित ,दुखी ,मरणासन्न जनसमुदाय के बीच पहुँचता है ...."महात्मा" मान लिया जाता है .... "महात्मा "का वह आरोपित मान/जन विशवास  ....."राजू गाइड "को कहीं पीछे धकेल उसकी आत्मा को परमात्मा के चमत्कृत अनुभव से "दिव्य शून्यता " से भर देता है .....और फिर मृत्यु नहीं मुक्ति ....केवल मुक्ति .....असल मुक्ति ...न स्ययम  के पतित होने की कुंठा /न स्ययम  के संत होने का अभिमान ....मुक्ति मात्र मुक्ति ...........आदरणीय संध्या जी .... उस महान सिनेमा के उन अंतिम दृश्यों में ....मै स्ययम को रोने से रोक नहीं पाया था ...लगातार रोता रहा था .... "मैंने  व्यतिगत जीवन में "राजू गाइड "के विचलन को अधिक जिया है ...बहुत सी त्रुटियाँ /भूल की ...बहुत से लोगो को दुखी किया ,स्ययम के साथ-साथ सब को छला ....." लेकिन मेरा वह विलाप निःसंदेह "राजू गाइड " की मृत्यु  पर  नहीं था ......उसकी  महान मुक्ति के प्रति था ......वह महान मुक्ति जो ....जंगलों में तप से नहीं ....धर्मग्रंथों के जप से नहीं ....पलायन के पथ से नहीं .......मिलती है तो बस ....जन की सेवा में स्ययम को शून्य बना लेने की चाह में ...................

(क्षमा चाहूँगा ....आदरणीय संध्या जी .....आपकी इस रचना का भाव /स्वर अभिशापित रूप में लगातार अपने जीवन में भोगता रहा हूँ .... विडम्बना देखिये .....न पलायन का विकल्प शेष है ....न ही मुक्ति का संकल्प संभव .... रचना से पृथक व्यतिगत अनुभूति /पीड़ा को भी कह गया ......कृपया क्षमा कीजियेगा .....सादर ....शत -शत नमन आपकी इस नवीन दृष्टि बोध देती सुन्दर रचना को ....आपको .....सादर ......
आदरणीय संध्या जी .......सादर नमस्कार ....
"हे परम पिता !!
फेंक कर अपने
उत्तरदायित्व
गठरी में लपेट कर ,
गौतम बुद्ध सा
निकल पड़ा था एक दिन
अपने पलायन की शर्म को
तेरी खोज की गरिमा
से ढांप कर | ..."..................आजके लगभग 15 वर्ष पूर्व "यशोधरा' पढने का  अवसर मिला था  मिला था  ......" हाय मुझसे कह कर जाते "....के उस करुण  करुण विलाप के बीच  .....गौतम बुद्ध की वह "जिज्ञासा " ..... मन को भीतर तक व्यथित करता रहा था  .... अपने उत्तरदायित्व और ईश्वरीय खोज के बीच ....मन में बहुत से प्रश्न उठे ...और निरुत्तरित शांत हो गए .....आज वही सन्दर्भ ....आपकी इस मर्मस्पर्शी /यथार्थ बोध लिये  सुन्दर रचना में  ....पूर्णतः स्पष्ट और तटस्थ वैचारिक  बोध ...शंकाओं का समाधान प्रस्तुत  करते हुए .....नमन करता हूँ इस गहन वैचारिक प्रस्तुति को ....स्मृति कोष में संचित करने योग्य इस सुन्दर  रचना को ...................................
 कौन जान पायेगा भला ??
कि मुक्ति की ये राह
ख़त्म होती है .....
असंख्य बेड़ियों पर ..!! ........अनायास ही ....एक महान सिनेमा का अमर पात्र (राजू गाइड ) याद हो आया .... बेड़ियों के डर से भाग ...मानवीय कारागार से स्वतंत्रता की चाह  ....भौतिक मुक्ति के लिए पहचान छुपा ....छुपता-छुपाता .....मानवीय सबलताओं /दुर्बलताओं से भरा सामान्य सा चरित्र .....जब पीड़ित ,दुखी ,मरणासन्न जनसमुदाय के बीच पहुँचता है ...."महात्मा" मान लिया जाता है .... "महात्मा "का वह आरोपित मान/जन विशवास  ....."राजू गाइड "को कहीं पीछे धकेल उसकी आत्मा को परमात्मा के चमत्कृत अनुभव से "दिव्य शून्यता " से भर देता है .....और फिर मृत्यु नहीं मुक्ति ....केवल मुक्ति .....असल मुक्ति ...न स्ययम  के पतित होने की कुंठा /न स्ययम  के संत होने का अभिमान ....मुक्ति मात्र मुक्ति ...........आदरणीय संध्या जी .... उस महान सिनेमा के उन अंतिम दृश्यों में ....मै स्ययम को रोने से रोक नहीं पाया था ...लगातार रोता रहा था .... "मैंने  व्यतिगत जीवन में "राजू गाइड "के विचलन को अधिक जिया है ...बहुत सी त्रुटियाँ /भूल की ...बहुत से लोगो को दुखी किया ,स्ययम के साथ-साथ सब को छला ....." लेकिन मेरा वह विलाप निःसंदेह "राजू गाइड " की मृत्यु  पर  नहीं था ......उसकी  महान मुक्ति के प्रति था ......वह महान मुक्ति जो ....जंगलों में तप से नहीं ....धर्मग्रंथों के जप से नहीं ....पलायन के पथ से नहीं .......मिलती है तो बस ....जन की सेवा में स्ययम को शून्य बना लेने की चाह में ...................

(क्षमा चाहूँगा ....आदरणीय संध्या जी .....आपकी इस रचना का भाव /स्वर अभिशापित रूप में लगातार अपने जीवन में भोगता रहा हूँ .... विडम्बना देखिये .....न पलायन का विकल्प शेष है ....न ही मुक्ति का संकल्प संभव .... रचना से पृथक व्यतिगत अनुभूति /पीड़ा को भी कह गया ......कृपया क्षमा कीजियेगा .....सादर ....शत -शत नमन आपकी इस नवीन दृष्टि बोध देती सुन्दर रचना को ....आपको .....सादर ......

Sunday, January 13, 2013

दहशत में जो सूख गया गौर से सुनो जरा ,
युद्ध युद्ध युद्ध ये दरख्त की पुकार है !! .............................जय हो जय हो ....जय हो ....आदरणीय अशोक जी ......क्रिया  जितनी तीव्र हो ....प्रतिक्रिया भी उतनी ही तेज और असरकारक होनी चाहिए ... कविता के इस स्वाभाविक आक्रोश ने रक्तसंचार की गति बाधा दी .......सादर।

Friday, January 11, 2013

" आदरणीय विनोद जी ...आदरणीय नवल जी सत्य कहा ...."यह मेरा आक्रोश नहीं ...बतौर पाठक मेरा क्षोभ है ....एक समृद्ध रचनाकर की ....साथी रचना के प्रति ........मैं थोडा स्पष्ट करता हूँ ......" आप जिस विषय पर खंड-काव्य लिखने चाह रहे हैं ...वह सर्वव्यापी है ...यत्र-तत्र -सर्वत्र ....मानवीय  सभ्यता ने  नए-नए सोपान रचे ....नए-नए क्षितिज गढ़े ....बहुत तरक्की की ....लेकिन ....लेकिन ...भूख ,ग़रीबी ,लाचारी ,असमानता दानवीय विकृतियों को दूर नहीं कर सका ...सरकारी प्रपत्रों /अखबारों /आंदोलनों में बस यह एक आंकड़ा आधारित नारा  भर रह जाता है ...नारों में सतही  उत्साह ...क्षणिक उत्तेजना ...विचारहीन आक्रोश .....
भूख बिलबिलाती रहती हैं ....हम रोटी के वादों /दावो का दम भरते रहते हैं ...ऐसा ही होता रहा है 
"आदरणीय .....सिन्हा  साहब ,नवल जी ,संध्या जी ,निशा जी ,सपन सर ,नन्दन जी ....
 आदरणीय संध्या जी ने कितनी सुन्दर ,सार्थक बात कही ..."दर असल ये मार्मिक घटनाएं शब्दों से परे हैं .....गहराई से इनका एहसास तन और मन की चूलें हिला कर रख सकता है .....और ये एहसास जब सचमुच हमारे हर कोश में जा कर जड़ें जमायें ...तब जो शब्द फूटेगें तब वो शायद इन घटनाओं के थोड़ा समीप आ सकें "....निःसंदेह तब जो कविता उत्पन्न होगी वह ...वह क्षणिक प्रयास भर न हो कर  कालातीत होगी ...नमन  आदरणीय संध्या जी के इन सुन्दर विचारों को .......
आदरणीय सपन सर ने सहज ही गंभीर सत्य कह दिया " यह संवेदनशीलता और निष्ठा और कर्तव्य परायणता नहीं होती ... बस लिखने के लिए लिखना अनावश्यक है ..." सच है ...लिखना बाध्यता नहीं होना चाहिए ...न ही प्रयास मात्र .....रचना को अपने अंतस में भ्रमण  करने लिए अवसर देना आवश्यक है ...जिससे की संवेदनात्मक बोध लिये  ... उचित शब्द आवरण में .....भावों की गहनता के साथ ....कविता स्ययम प्रस्तुत होने को आतुर हो उठे ...और कविता जब स्ययम उपस्थित होती है ....तब शब्द-शब्द ,भाव-भाव ....जी उठते हैं ..........आप आदरणीय वरिष्ठ जानो के समक्ष खुलेमन से अपने विचार रखने का दुसाहस करता हूँ ... अल्प समय में ही मुझे यह विश्वास  हो गया है की .....हमारा सम्मानित मंच वैचारिक रूप से बहुत ही समृद्ध ...संवेदनशील है ..........आप सभी को ह्रदय की पूर्ण श्रद्धा से शत-शत नमन ........सादर ....

Thursday, January 10, 2013

"निःसंदेह आपकी पीड़ा ...आपका आक्रोश पूरी तरह जायज है ...इस तरह के राष्ट्र विरोधी ,समाज विरोधी,मानवता विरोधी ....राष्ट्र विरोधी तत्वों के विरुद्ध ...किसी एक व्यक्ति ,किसी समुदाय का ही ... नहीं सम्पूर्ण भारतीय नागरिकों का कर्तव्य है उठ खड़े हों ...इस  की शैतानी ताकतों को पनपने से पहले उखाड़ने की जरुरत है ..इनकी जड़ों में मट्ठा डालना ही होगा ....सबको मिल कर एक  स्वर में कहना होगा ...."तुम्हारे जैसे जाहिल ,मानवता के शत्रुओं ,राष्ट्र विरोधियों के लिए कोई जगह नहीं है हमारी धरती पर ....हमारे दिलो में ......." और जो सियासी हुक्मरान इस तरह के लोगो के पीछे खड़े होते हैं ...उन्हें भी पहचान कर ....उनके खिलाफ भी जनमत को जागृत करने की आवश्यकता है ......तभी देश स्वच्छ रहेगा ...समाज सुरक्षित ......"
'"वह मित्र पांचो वक़्त के नमाज़ी थे ...मैं  भी नियमित रूप से रामायण पढता था ....
"आप धर्म को किस तरह लेते हैं ....मैंने कहा "नदी" के जल की तरह लेता हूँ
 कभी "नदी" के भीतर जा कर सत्य को खोजा  है ..? मैंने कहा नहीं ...मैं उसकी गति ...उसके स्पर्श ...उसके स्वाभाविक कम्पन में "सत्य" को पाता  हूँ ...
उन्होंने फिर पूछा ...सत्य क्या है ....? मैंने कहा प्रेम ....मात्र प्रेम ...
प्रेम के साथ ही घृणा भी तो है दुनिया में ....?उन्होंने शंका ज़ाहिर की ....प्रेम स्वनिर्मित है ...इश्वर की तरह ...सृष्टि की तरह

आदरणीय निशा जी ...निसंदेह यथार्थ जब इस रूप में हमारे सामने हो तो कवी मन पीड़ा को गाता है ...पाठक अपनी संवेदनाओं में उस पीड़ा को पाता  हैं ....रचना और प्रतिक्रिया दोनों ही भावुक हो उठती हैं ......जिस प्रकार यह रचना अपूर्ण  रही ....यह कटु यथार्थ भी अब विश्राम ले ....हर मनुष्य संपन्न ,सामर्थ्यशील ,संभावनाओं से भरा हो तो जीवन कितना सुन्दर हो जायेगा ...है ना ....आपकी गंभीर उपस्थिति सदैव ही रचना /रचनाकार का मान बढ़ा  जाती है ......ह्रदय से धन्यवाद ..........सादर ...
"आदरणीय सलिल जी .....आपने जिस गंभीरता से इन पंक्तियों को पढ़ा ....भावों में व्यक्त पीड़ा को अनुभव किया ....ह्रदय से आपको धन्यवाद कहता हूँ ...साथ ही सब से रोचक बात रही ....आपका इन पंक्तियों में एक खंड-काव्य की सम्भावना तलाशना .....सच कहूँ तो 1997-198 में जब इसे लिखना प्राम्भ किया था तब शायद 5-6 पृष्ठों तक शब्द और भाव साथ रहे थे ...जिन कागजो पर लिखा था ..गुम हो गए .. ...अब कितना भी चाहूँ इस रचना को वह स्वरुप नहीं दे सकता ......जिस तरह मैंने अपने जीवन को अभिशापित किया उस तरह के जीवन में ....पुनर्विचार ...अथवा पुनः प्रयास जैसी सम्भावना ही ध्वस्त हो गई ...निसंदेह
माँ की ममता, जलहीन धरा ,जो खुद ही भूखी-प्यासी थी

माँ के अधरों के भांति ही ,वक्षों में गहन उदासी थी .......इसके आगे की दो पंक्तियाँ और याद आई थी कल शाम ....
" माँ के वक्षो से दूध नहीं ,केवल नैनों से अश्रु बहे
  उस माँ के पीड़ा  कौन सहे उस माँ की पीड़ा  कौन कहे ...........वह अनुभूति ....वह यथार्थ पीड़ा पुनः मन में भर .....भाव को शब्द रूप दे पाना अब निश्चित ही संभव नहीं .....प्रयास भी करूँगा ....तो मात्र बनावटी  भाव के साथ  ओढ़े हुए निर्जीव शब्द ही मुखर होंगे ......किन्तु ह्रदय की पूर्ण विनम्रता के साथ आपको नमन करता हूँ .....इस रचना को लिखते समय जो मंतव्य था ......आपने उसे  सम्भावना रूप में  उतनी ही गहराई से पकड़ा ...भावो को उतनी ही पीड़ा के साथ अनुभव किया ...इन पंक्तियों का पुनः स्मरण सार्थक हो गया ....सादर ....

Wednesday, January 9, 2013

"नहीं आदरणीय नवल जी ...यह मात्र पढने में कोई मात्रात्मक दोष नहीं था ....यह एक पाठक का नैतिक ,वैचारिक अपराध है ...यदि मै  बतौर पाठक आपको पहले से पढता रहा हूँ ...आपकी रचनाओ में आपकी छवि गढ़ता रहता हूँ तो यह अपराध अक्षम्य है .....हिन्द या हिन्दू के संशय में ...बतौर रचनाकार /पाठक आपकी निष्पक्षता को  भूल बैठा ...आपकी गंभीर तटस्थता को भूल बैठा .....माँ  वीणा वादिनी .....मन को शांति दे ...स्थिरता दें ....मुझे क्षमा करें ........सादर ............."