"आदरणीय सलिल जी .....आपने जिस गंभीरता से इन पंक्तियों को पढ़ा ....भावों में व्यक्त पीड़ा को अनुभव किया ....ह्रदय से आपको धन्यवाद कहता हूँ ...साथ ही सब से रोचक बात रही ....आपका इन पंक्तियों में एक खंड-काव्य की सम्भावना तलाशना .....सच कहूँ तो 1997-198 में जब इसे लिखना प्राम्भ किया था तब शायद 5-6 पृष्ठों तक शब्द और भाव साथ रहे थे ...जिन कागजो पर लिखा था ..गुम हो गए .. ...अब कितना भी चाहूँ इस रचना को वह स्वरुप नहीं दे सकता ......जिस तरह मैंने अपने जीवन को अभिशापित किया उस तरह के जीवन में ....पुनर्विचार ...अथवा पुनः प्रयास जैसी सम्भावना ही ध्वस्त हो गई ...निसंदेह
उस माँ के पीड़ा कौन सहे उस माँ की पीड़ा कौन कहे ...........वह अनुभूति ....वह यथार्थ पीड़ा पुनः मन में भर .....भाव को शब्द रूप दे पाना अब निश्चित ही संभव नहीं .....प्रयास भी करूँगा ....तो मात्र बनावटी भाव के साथ ओढ़े हुए निर्जीव शब्द ही मुखर होंगे ......किन्तु ह्रदय की पूर्ण विनम्रता के साथ आपको नमन करता हूँ .....इस रचना को लिखते समय जो मंतव्य था ......आपने उसे सम्भावना रूप में उतनी ही गहराई से पकड़ा ...भावो को उतनी ही पीड़ा के साथ अनुभव किया ...इन पंक्तियों का पुनः स्मरण सार्थक हो गया ....सादर ....
" माँ के वक्षो से दूध नहीं ,केवल नैनों से अश्रु बहे
उस माँ के पीड़ा कौन सहे उस माँ की पीड़ा कौन कहे ...........वह अनुभूति ....वह यथार्थ पीड़ा पुनः मन में भर .....भाव को शब्द रूप दे पाना अब निश्चित ही संभव नहीं .....प्रयास भी करूँगा ....तो मात्र बनावटी भाव के साथ ओढ़े हुए निर्जीव शब्द ही मुखर होंगे ......किन्तु ह्रदय की पूर्ण विनम्रता के साथ आपको नमन करता हूँ .....इस रचना को लिखते समय जो मंतव्य था ......आपने उसे सम्भावना रूप में उतनी ही गहराई से पकड़ा ...भावो को उतनी ही पीड़ा के साथ अनुभव किया ...इन पंक्तियों का पुनः स्मरण सार्थक हो गया ....सादर ....
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