poetry by kavi chavi

Wednesday, January 20, 2010

एकांत

.............एकांत .........................

"शांत उपवन हो या हो एकांत निर्जन

कोई छड हो मन नहीं विश्राम पाता

याद आता मौन अधरों का तुम्हारें

और कभी चेहरा तुम्हारा मुस्कुराता



शांत उपवन हो .............................



दृश्य धूमिल ही सही ,जीवित सभी हैं

शब्द विस्तृत अर्थ ले आतें अभी हैं

खो गए सामीप्य के हों पाश पावन

शेष ,किन्तु प्रेम की व्याकुल नदी है

स्वप्न का नयनों से हो चाहे अपरिचय

आ ह्रदय में स्वप्न जीवन को जगाता

शांत उपवन हो ...............................



रात्रि की निस्तब्धता में चाँद भी कल
था मेरी ही भातीं अस्थिर और चंचल
थे छितिज पर चमकते नयना तुम्हारे
श्रृष्टि पर फैला हुआ था क्लांत आँचल

दृष्टि भ्रम या सत्य ही भ्रम बन गया था
था तुम्हारे स्वर में कोई गुनगुनाता
शांत उपवन हो ............................//......प्रेमप्रदीप

मासूमियत

...........मासूमियत .................

मैं नहीं समझता
की पाप होता है
मंदिर के सामने से गुजरते
सिर न झुकाना
या सड़क पर पड़ी मृत देह को
भीड़ की शक्ल में घेर
संवेदना प्रकट न करना
...मैं यह भी गलत नहीं समझता
की बच कर निकल जाया जाये
उन लोगों से /जो मांगते है
थोडा सा वक़्त ...
कुछ शब्द ...
कोई आश्वासन ...
मैं समझता हूँ /कुछ गलत है
कोई पाप है /तो बस ...
किसी बच्चे की बच्ची मुस्कराहट को
सख्त बूढी आँखों से देखना
उनके पैरों को थपथपाना
और बताना ...
की ज़मीं पथरीली और ठोस है
की स्वप्न देखना मुर्खता है
की स्वप्न सच नहीं होते ......//

२०/०१ २०१०