आदरणीय संध्या जी .......सादर नमस्कार ....
"हे परम पिता !!
फेंक कर अपने
उत्तरदायित्व
गठरी में लपेट कर ,
गौतम बुद्ध सा
निकल पड़ा था एक दिन
अपने पलायन की शर्म को
तेरी खोज की गरिमा
से ढांप कर | ..."..................आजके लगभग 15 वर्ष पूर्व "यशोधरा'
पढने का अवसर मिला था मिला था ......" हाय मुझसे कह कर जाते "....के उस
करुण करुण विलाप के बीच .....गौतम बुद्ध की वह "जिज्ञासा " ..... मन को
भीतर तक व्यथित करता रहा था .... अपने उत्तरदायित्व और ईश्वरीय खोज के बीच
....मन में बहुत से प्रश्न उठे ...और निरुत्तरित शांत हो गए .....आज वही
सन्दर्भ ....आपकी इस मर्मस्पर्शी /यथार्थ बोध लिये सुन्दर रचना
में ....पूर्णतः स्पष्ट और तटस्थ वैचारिक बोध ...शंकाओं का समाधान
प्रस्तुत करते हुए .....नमन करता हूँ इस गहन वैचारिक प्रस्तुति को
....स्मृति कोष में संचित करने योग्य इस सुन्दर रचना को
...................................
कौन जान पायेगा भला ??
कि मुक्ति की ये राह
ख़त्म होती है .....
असंख्य बेड़ियों पर ..!! ........अनायास ही ....एक महान सिनेमा का अमर
पात्र (राजू गाइड ) याद हो आया .... बेड़ियों के डर से भाग ...मानवीय
कारागार से स्वतंत्रता की चाह ....भौतिक मुक्ति के लिए पहचान छुपा
....छुपता-छुपाता .....मानवीय सबलताओं /दुर्बलताओं से भरा सामान्य सा
चरित्र .....जब पीड़ित ,दुखी ,मरणासन्न जनसमुदाय के बीच पहुँचता है
...."महात्मा" मान लिया जाता है .... "महात्मा "का वह आरोपित मान/जन
विशवास ....."राजू गाइड "को कहीं पीछे धकेल उसकी आत्मा को परमात्मा के
चमत्कृत अनुभव से "दिव्य शून्यता " से भर देता है .....और फिर मृत्यु नहीं
मुक्ति ....केवल मुक्ति .....असल मुक्ति ...न स्ययम के पतित होने की कुंठा
/न स्ययम के संत होने का अभिमान ....मुक्ति मात्र मुक्ति
...........आदरणीय संध्या जी .... उस महान सिनेमा के उन अंतिम दृश्यों में
....मै स्ययम को रोने से रोक नहीं पाया था ...लगातार रोता रहा था ....
"मैंने व्यतिगत जीवन में "राजू गाइड "के विचलन को अधिक जिया है ...बहुत सी
त्रुटियाँ /भूल की ...बहुत से लोगो को दुखी किया ,स्ययम के साथ-साथ सब को
छला ....." लेकिन मेरा वह विलाप निःसंदेह "राजू गाइड " की मृत्यु पर नहीं
था ......उसकी महान मुक्ति के प्रति था ......वह महान मुक्ति जो
....जंगलों में तप से नहीं ....धर्मग्रंथों के जप से नहीं ....पलायन के पथ
से नहीं .......मिलती है तो बस ....जन की सेवा में स्ययम को शून्य बना लेने
की चाह में ...................
(क्षमा चाहूँगा ....आदरणीय संध्या जी .....आपकी इस रचना का भाव /स्वर
अभिशापित रूप में लगातार अपने जीवन में भोगता रहा हूँ .... विडम्बना देखिये
.....न पलायन का विकल्प शेष है ....न ही मुक्ति का संकल्प संभव .... रचना
से पृथक व्यतिगत अनुभूति /पीड़ा को भी कह गया ......कृपया क्षमा कीजियेगा
.....सादर ....शत -शत नमन आपकी इस नवीन दृष्टि बोध देती सुन्दर रचना को
....आपको .....सादर ......
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