..............महापुरुष ....................
लालटेन की कसमसाती रौशनी के बीच
छोटी और धुंधली परछाइयों की तरह
कभी भी .........
हावी नहीं होने दिया
अपने अनगिनत दुखों को
गिनती भर सुखों पर
उसे मुस्कुराने के लिए
कभी प्रयास नहीं करना पड़ा
और वह कभी ठहाके लगा कर नहीं हंसा
अपने स्वघोषित आपातकाल में भी
अजीब आदमी था ...
कोई समस्या नहीं थी
उसके लिए समस्या
बस एक चुनौती भर /जिसे स्वीकार करते
चिन्ताओ की झाइयों को परे धकेल
दिखाई दिया सदैव ही
एक प्रकाश स्तम्भ /उसके काँधे पर
बहुत अजीब आदमी था ...
मानवीय सभ्यताओं के सभ्य महापुरुषों की तरह
कुछ आशावादी /और बहुत जिद्दी
शायद इसीलिए स्वीकार नहीं कर सका
अपनी हार ......
निरंतर बढ़ता रहा /जीत की तलाश में
संभवतः उसका व्यतिगत कुछ था ही नहीं
सब कुछ सार्वजनिक
हार भी .......
इसीलिए अस्वीकार रही /जीवन भर
किन्तु ,मृत्यु के एक छड पूर्व
कंठ से निकली थी एक आह
कापतें हाथों में था उदास स्पर्श
और आँखों में पराजय की आहत शर्मिंदगी ...
(मानवीय सभ्यताओं के दिवंगत
सभ्य महापुरुषों की अंतिम नियति )
उसकी आँखों ने छलका ही दी थी
एक बूँद ...
...और मैं महसूस करता रहा
की मेरा पिता /साधारण पुरुष क्यूं न हुआ .../
२२ /०१ २०१०
लालटेन की कसमसाती रौशनी के बीच
छोटी और धुंधली परछाइयों की तरह
कभी भी .........
हावी नहीं होने दिया
अपने अनगिनत दुखों को
गिनती भर सुखों पर
उसे मुस्कुराने के लिए
कभी प्रयास नहीं करना पड़ा
और वह कभी ठहाके लगा कर नहीं हंसा
अपने स्वघोषित आपातकाल में भी
अजीब आदमी था ...
कोई समस्या नहीं थी
उसके लिए समस्या
बस एक चुनौती भर /जिसे स्वीकार करते
चिन्ताओ की झाइयों को परे धकेल
दिखाई दिया सदैव ही
एक प्रकाश स्तम्भ /उसके काँधे पर
बहुत अजीब आदमी था ...
मानवीय सभ्यताओं के सभ्य महापुरुषों की तरह
कुछ आशावादी /और बहुत जिद्दी
शायद इसीलिए स्वीकार नहीं कर सका
अपनी हार ......
निरंतर बढ़ता रहा /जीत की तलाश में
संभवतः उसका व्यतिगत कुछ था ही नहीं
सब कुछ सार्वजनिक
हार भी .......
इसीलिए अस्वीकार रही /जीवन भर
किन्तु ,मृत्यु के एक छड पूर्व
कंठ से निकली थी एक आह
कापतें हाथों में था उदास स्पर्श
और आँखों में पराजय की आहत शर्मिंदगी ...
(मानवीय सभ्यताओं के दिवंगत
सभ्य महापुरुषों की अंतिम नियति )
उसकी आँखों ने छलका ही दी थी
एक बूँद ...
...और मैं महसूस करता रहा
की मेरा पिता /साधारण पुरुष क्यूं न हुआ .../
२२ /०१ २०१०
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