poetry by kavi chavi

Saturday, January 23, 2010

औरत

............स्त्री ............

स्मृतियों की पोटली से
छांटती रही वह
सुख के क्षणों को /जो न मिले
घुटन,पीड़ा,अवसाद भरे क्षण ही
कौंधते रहे स्मृतियों में
चूल्हे के भीतर रखी
गीली लकड़ियों से
उठता धुंआ भर आया आँखों में
जुठें बर्तनों की कालिख
पसर आई मन पर
झाड़ू बुहारते
आँगन लीपते
हाथों ने जब उठाये
विश्राम के कुछ क्षण ...
अचानक आ पड़ी एक लात /पीठ पर
...और वर्तमान की तरह
असभ्य /कुछ शब्द
बटोर लिया
घुटन,पीड़ा ,अवसाद
भरे क्षणों को ...
बांध पोटली में
टांग खूटें पर
उठा ली पास ही रखी झाड़ू
...घर के भीतर का एक कोना
कुछ गन्दा सा दिखाई दिया था ...//

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