poetry by kavi chavi

Tuesday, April 12, 2011

घन गरज-गरज रिम झिम बरसे
तन हो पुलकित मन भी हर्षे
ऐसे में प्रियतम आन मिले
बांहों में भर ले आ कर  के
घन गरज ............

है झुलस रही यह देह सखी
अधरों पर प्यास है जाग उठी
यौवन की कलियाँ झूम रही
मन उपवन में हडकंप मची
आश्वाशन ओढ़ भला कब तक
प्रियतम वियोग में मन तरसे
घन गरज ..........

है नाच उठी धरती सारी
इठलाती बादरिया कारी
भीगे छप्पर भीगे आँगन
भीगे कोयलिया कजरारी
है मात्र मेरा ही शौक दिवस
मन व्याकुल दुख की गागर से
घ गरज ............

वो आज सखी जो आजायें
तो नयनों को सुख पहुचाएं
मनुहार करे स्वीकार करे
बांहों का आँचल पहनाएं
बन कर विशाल मै नदी
पुनः मिल जाऊं अपने सागर से

घन गरज-गरज रिम झिम बरसे
तन हो पुलकित मन भी हरसे
ऐसे में प्रियतम आन मिले
बांहों में भर ले आ कर के ...||
                                                     १२/०४/2011

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